अक्षय तृतीया- धर्म, संस्कृति और परंपरा का पावन संगम- डॉ महेश झा 

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 ललितपुर- पहलवान गुरुदीन प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्राचार्य डॉक्टर महेश कुमार झा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता का प्रतीक उसके त्योहार हैं, जो केवल धार्मिक आस्था ही नहीं, बल्कि सामाजिक एकता, परंपरा और नैतिक मूल्यों को भी सशक्त करते हैं। इन्हीं शुभ पर्वों में से एक है अक्षय तृतीया, जिसे ‘आखा तीज’ या अकती भी कहा जाता है। यह पर्व न केवल हिन्दू बल्कि जैन धर्म में भी अत्यंत पवित्र माना जाता है। अक्षय तृतीया वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है और इसे ऐसा दिन माना जाता है जो अक्षय फल देने वाला है – यानी इसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता।
                  अक्षय का अर्थ होता है – जो कभी समाप्त न हो, और तृतीया का अर्थ है – तीसरा। अतः अक्षय तृतीया का शाब्दिक अर्थ हुआ – ऐसा तीसरा दिन जो अनंत पुण्य और फल प्रदान करे। मान्यता है कि इस दिन किया गया हर पुण्यकर्म जैसे दान, जप, तप, हवन, स्नान आदि कई गुना फल देता है और उसका प्रभाव कभी समाप्त नहीं होता। यही कारण है कि इसे अबूझ मुहूर्त भी माना जाता है – यानी इस दिन किसी भी शुभ कार्य के लिए पंचांग देखने की आवश्यकता नहीं होती।
                 पौराणिक कथाएँ और धार्मिक महत्व में अक्षय तृतीया से जुड़ी अनेक धार्मिक और पौराणिक कथाएँ इसे अत्यंत पावन और पुण्यदायी बनाती हैं। भगवान परशुराम का जन्म इसी दिन हुआ था, जो भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं।त्रेता युग का प्रारंभ इसी दिन हुआ था, जो सतयुग के बाद का युग है। महाभारत के अनुसार, पांडवों को वनवास काल में भगवान सूर्य ने जो अक्षय पात्र दिया था, वह भी इसी दिन मिला था। जब तक द्रौपदी भोजन करती थीं, तब तक उस पात्र से अन्न समाप्त नहीं होता था। इसी दिन भगवान गणेश और महर्षि वेदव्यास ने मिलकर महाभारत ग्रंथ लिखना प्रारंभ किया था। गंगा का अवतरण पृथ्वी पर भी इसी दिन हुआ था। जैन धर्म के अनुसार, पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने वर्षभर की तपस्या के बाद इसी दिन गन्ने के रस से पारणा किया था। इन घटनाओं के कारण यह दिन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यंत शक्तिशाली और फलदायी माना जाता है।
              आज के समय में, जब लोग आधुनिकता की दौड़ में अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं, अक्षय तृतीया जैसे पर्व हमें संस्कृति, सेवा और आध्यात्मिकता से जोड़ते हैं। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि सच्चे मन से किए गए कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते। लोग इस दिन मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना करते हैं, कथा-कीर्तन और भंडारों का आयोजन होता है। गरीबों को भोजन कराना, वस्त्र व जलदान करना, तथा जरूरतमंदों की सेवा करना इस दिन को सार्थक बनाते हैं।
               अक्षय तृतीया को विवाह, गृह प्रवेश, नया व्यवसाय, ज़मीन या स्वर्ण (सोना) खरीदने जैसे कार्यों के लिए अत्यंत शुभ माना गया है। विशेष रूप से सोना खरीदना इस दिन समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन खरीदी गई संपत्ति कभी नष्ट नहीं होती। इस दिन अन्न, वस्त्र, जल से भरे घड़े, शीतल पेय (जैसे शरबत), छाता, जूते, पंखा, सोना, गाय और भूमि का दान विशेष रूप से पुण्यदायी माना गया है। विशेषकर गर्मी के मौसम में जल का दान और प्याऊ लगाना सामाजिक सेवा का महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। जैन अनुयायी इस दिन उपवास, तप, विशेष पूजा और आहार दान करते हैं। यह दिन उनके लिए केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि और तपस्या की पूर्णता का दिन होता है। इस प्रकार, यह दिन हिन्दू और जैन धर्मों के धार्मिक संगम का प्रतीक बन गया है।
                बुन्देलखण्ड में अकती का विशेष महत्व है इस क्षेत्र में अक्षय तृतीया को अकती कहा जाता है और यह पर्व यहाँ कृषि, परंपरा और समाज के लिए विशेष स्थान रखता है। इस दिन किसान शुभ समय देखकर खेत में पहला हल चलाते हैं, जिसे नए कृषि चक्र की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। “हल छूवाने” की परंपरा के तहत हल और बैलों की पूजा की जाती है, उन्हें सजाया जाता है और अच्छा चारा खिलाया जाता है। गाँवों और शहरों में प्याऊ लगाई जाती है, जहाँ राहगीरों को ठंडा पानी, शरबत, गुड़-चना आदि वितरित किया जाता है। शादी-ब्याह के कार्यक्रमों की शुरुआत भी इसी दिन से की जाती है। घरों में पूड़ी, कचौड़ी, खीर और अन्य पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं।एक खास परंपरा है “सोन बॉटना”, जिसमें गेहूं की बालियों, खील, मिठाई या चने जैसे अन्न का वितरण किया जाता है। बुन्देलखण्ड में सोन का मतलब होता है जीवन की असली समृद्धि – अन्न अक्षय तृतीया केवल एक पर्व नहीं, बल्कि धर्म, परमार्थ और संस्कृति का उत्सव है। यह हमें सिखाता है कि दान, सेवा और पुण्य के कार्य केवल धार्मिक आस्था का हिस्सा नहीं, बल्कि जीवन को अर्थपूर्ण बनाने का माध्यम भी हैं। इस दिन किए गए शुभ कार्य न केवल अक्षय फल देते हैं, बल्कि समाज में प्रेम, सेवा और सह-अस्तित्व की भावना को भी बल देते हैं।इसलिए, आइए इस अक्षय तृतीया को केवल पूजा और खरीदारी तक सीमित न रखते हुए, इसे सच्चे अर्थों में धर्म, परंपरा और परोपकार के उत्सव के रूप में मनाएं।

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