ललितपुर । धनतेरस के पावन पर्व पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी पर सागर मंथन में अमृत कलश के साथ प्रकट हुए आयु के वेद अर्थात स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मष्तिष्क के प्रतिष्ठापक भगवान् धन्वंतरि के अवतरणोत्सव का प्रेरक प्रसंग है।
आयु की अवधि श्वांसो पर निर्भर है, न कि काल पर निर्धारित है। आयुर्वेद हमारी एक एक श्वांस – प्रश्वांस पर अर्जुन दृष्टि रखते हुए परिपूर्णता के साथ जीवन जीने का विज्ञान एवं कला का संयुक्त रूप है।
आयुर्वेदिक उक्ति के अनुरूप यदि हम रोटी को पीने और दूध को खाने की कला के मर्म को जान जाएँ तो हम दौड़ते हुए चल सकते हैं। एकांत में गुनगुनाते हुए, अपने मानसिक बोझ से सहज ही मुक्त हो सकते हैं।
हमारी संस्कृति में विपत्ति का सामना करने के लिए, संपत्ति को जरूरी बताया गया है। आसन्न महालक्ष्मी पूजन से दो दिन पूर्व धनतेरस मनाने का विधान यह संदेश देता है कि अर्जित धन मेरा नहीं, तेरा है। अर्थात धरती, धूप, आग, पानी, हवा की वाहिका श्रम की देवी लक्ष्मी का है। शास्त्रों में धन को दृव्य कहा गया है। नदी की तरह द्रवणशीलता – तरलता ही धन का प्राणतत्व है। लोक व्यवहार में धन को हाथ का मैल कहा जाना भी न्यायसंगत है क्योंकि हाथ से काम करने पर श्रम का जो अर्क है, उसी का संचित रूप “पसीना ” ही वस्तुतः हाथ का मैल – संपत्ति के अर्थ का द्योतक है। श्रम जीवित पूंजी है जो निर्जीव चल-अचल संपत्ति को जन्म देती है किन्तु यही मृत पूंजी सदियों से जीवित श्रम के पीछे हाथ धोकर पड़ी है । संस्कृत भाषा कितनी पारदर्शक है जो कहती है ‘कर’ काम करने के लिए ही ‘कर’ कहलाते हैं और कर से काम करने वाला ही सच्ची हँसी जीवन भर हँस सकता है, इसीलिए ‘कर’ का दूसरा पर्यायवाची ‘हस्त’ कहलाता है जिसमें हास धातु लगी है। वैदिक ॠषियों ने कहा है जो देवता अग्नि, वायु,जल तथा औषधियों और वनस्पतियों में है, उसी अद्वैत को मैं प्रणाम करता हूँ क्योंकि ‘वे’ और ‘हम’ एक हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास चित्रकूट के उस प्रसंग में जिसमें भरत भगवान राम को अयोध्या लौट चलने की आयोजित सभा में जब आग्रह करते हैं तो मर्यादा पुरुषोत्तम उन्हें निरुत्तर करते हुए कहते हैं कि पिता के न रहने पर हमलोगों को और अधिक निष्ठापूर्वक उनके आदेश का पालन करना चाहिए । मुझे उन्होंने वनवास की विपत्ति नहीं बल्कि ऐसी सम्पत्ति दी है जिसके बल पर हम वनवासियों की विपत्ति को जड़मूल से खत्म कर दें । और तुम्हें अयोध्या सौंपी है , ताकि तुम धरती को ‘अ-युद्ध’ बनाकर इसके अयोध्या नाम को सार्थकता प्रदान कर सको । सभी जानते हैं कि रावण पर विजय की खुशी में हम सभी दीपों का त्योहार मनाकर हर्षोल्लास व्यक्त करते हैं , न कि निर्जीव धन-सम्पत्ति की उपासना । रामकथा का सेमीफायनल तो सुंदरकांड में ही हनुमानजी सोने की लंका को जलाकर कांचनमुक्ति का संदेश देते हैं जिससे कि मायातुर ‘तूं तूं मैं मैं ‘ की जड़ ही कट जाये । तदनतर मैच का फायनल लंकाकांड में दशानन संहार के द्वारा पूरा होता है ।