गाँधी जी की पुरअमन बगावत ( शांतिमय प्रतिरोध ) अणुशक्ति से भी ज्यादा शक्तिशाली थी 

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ललितपुर। गांधी जयंती के अवसर पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि दूसरी बार गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका गए तो अपनी युवा पत्नी कस्तूरबा को भी साथ ले गए। जिस घटना ने युवा मोहनदास को आधुनिक युग के सर्वोच्च महामानव के पद पर बिठा कर गांधी के रूप में ख्यातित किया वह सुनने में बड़ी मामूली घटना मालूम देती है कि फर्स्ट क्लास के रेल टिकिट होते हुए भी उन्हें अंदर बैठे गोरे अंग्रेजों ने अंदर आने से सिर्फ मना ही नहीं किया अपितु गाली-गलौज और लात घूंसे मारकर उनकी पिटाई कर दी। जाड़े की दो बजे की रात उनके मन में ख्याल आया कि पत्नी के अलावा इस अप्रिय घटना को किसी परिचित भारतीय ने नहीं देखा , इसलिए स्वदेश उल्टे पांव लौट लिया जाये , साथ ही दूसरा ख्याल ये भी आया कि जिन्होंने ने दुर्व्यवहार किया है उनसे मेरी कोई रंजिश नहीं है । दूसरे वे यह नहीं जान रहे हैं कि उन्होंने क्या किया है। गांधीजी ने मन ही मन निर्णय लिया कि इंसान इंसान के बीच में काले गोरे का भेद अक्षम्य अपराध और पाप है। परंतु उससे भी ज्यादा अपराध या पाप स्वयं मेरा होता यदि मैं पापी से तो पाप का बदला लेता और उस सिस्टम का प्रतिरोध नही करता जो कि समस्त भेदभावों की जड़ है ।
     ऐसी ही छोटी-छोटी घटनाओं ने इस युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक आइंस्टीन को इतना प्रभावित किया  कि इ  एम सी स्क्वायर के सूत्र पर आधारित अणु शक्ति के आविष्कारक को यह स्वीकार करना पड़ा कि गांधी जैसे दुबले पतले हाड़-मांस का आदमी कभी इस धरती पर आया था कदाचित् हजारों साल बाद की पीढ़ियाँ मुश्किल से ही विश्वास कर पायेगीं । महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने यह भी स्वीकार किया था कि गांधी जी की पुरअमन बगावत (शांतिमय प्रतिरोध)  अणुशक्ति से भी ज्यादा शक्तिशाली है ।
  हिमालय जैसी शान्ति और ज्वालामुखी जैसी विस्फोटक क्रान्ति के अपूर्व संगम थे ,आधुनिक विश्व के महामानव गाँधी जी ।
        अतीत में जो कुछ महापुरुषों ने कहा ,उसका सार हमने गाँधी जी में पाया नि:सन्देह वे पहले के प्रयत्नों के फल और आगे की आशाओं के बीज हैं ।
     स्वतंत्र भारत में अनेक नेकदिल नेताओं यथा जयप्रकाश नारायण, अन्ना हजारे ,सुन्दर लाल बहुगुणा आदि ने अपने अपने आन्दोलनों को चमक प्रदान की । हमें गाँधी को टुकड़ों में नही , समग्रता में देखना होगा ।
       गाँधी जी ने अपने जीवनकाल में स्पष्ट घोषणा की थी कि मेरे न रहने पर जवाहरलाल नेहरू और विनोबा भावे मेरे राजनैतिक और आध्यात्मिक उत्तराधिकारी हैं जो मेरी ही भाषा बोलेंगे ।
दक्षिण अफ्रीका में और स्वदेश लौटने पर भारत में गाँधीजी का आगमन एक ऐसी निर्णायक घड़ी में हुआ, जिस समय प्रथम विश्व युद्ध और सोवियत रूस की बोल्शेविक क्रान्ति के दोहरे प्रभाव के कारण पूर्ववर्ती पुनर्जागरण के अग्रदूत स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रप्रेम का दायरा समस्त मानवप्रेम से जुड़ता चला जा रहा था ।
   आधुनिक युग में विद्वानों ने जिस राज्यविहीन समाज ( स्टेटलैस सोसाइटी ) के स्वरूप को आदर्श माना है भारतीय संस्कृति में प्रतिपादित अद्वैतवाद को गाँधीजी समाजवाद और साम्यवाद से भी ज्यादा व्यापक मानते है क्येंकि हमारा अद्वैतवादी दर्शन एक और एक को दो में नही देखता बल्कि अद्वैत में विश्वास करता है । वस्तुत: गाँधीजी इसी भारतीय अद्वैतवाद और वैशाली के उस प्राचीन गणतान्त्रिक व्यवस्था के प्रबल पक्षधर थे जहाँ सर्वसम्मति से ही वाकायदा वोटिंग होती थी तदनुसार उसे अधिनियमित कराया जाता था ।

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